01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
खैञ्चि सरासन श्रवन लगि छाडे सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥
मूल
खैञ्चि सरासन श्रवन लगि छाडे सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥
भावार्थ
कानों तक धनुष को खीञ्चकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोडे। वे श्री रामचन्द्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥102॥
02 चौपाई
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा॥1॥
मूल
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा॥1॥
भावार्थ
एक बाण ने नाभि के अमृत कुण्ड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥
मूल
धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥
भावार्थ
धड प्रचण्ड वेग से दौडता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकडे कर दिए। मरते समय रावण बडे घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥
डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥
मूल
डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥
भावार्थ
रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड के दोनों टुकडों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पडा॥3॥
मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषङ्ग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई॥4॥
मूल
मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषङ्ग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई॥4॥
भावार्थ
रावण की भुजाओं और सिरों को मन्दोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाडे बजाए॥4॥
तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा॥5॥
मूल
तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा॥5॥
भावार्थ
रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥
बरषहिं सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा॥6॥
मूल
बरषहिं सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा॥6॥
भावार्थ
देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय कृपा कन्द मुकुन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही।
सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही॥1॥
मूल
जय कृपा कन्द मुकुन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही।
सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही॥1॥
भावार्थ
हे कृपा के कन्द! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वन्द्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाडे बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचन्द्रजी के अङ्गों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तडित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥
मूल
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तडित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥
भावार्थ
सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यन्त मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यन्त सुन्दर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिडियाँ अपने महान् सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥