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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

मूल

देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

भावार्थ

वानरों को बडा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अन्तर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥100॥

02 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भए प्रगट जन्तु प्रचण्ड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

मूल

जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भए प्रगट जन्तु प्रचण्ड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

भावार्थ

जब उसने पाखण्ड (माया) रचा, तब भयङ्कर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥

जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

मूल

जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

भावार्थ

योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपडी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं॥2॥

धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

मूल

धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

भावार्थ

वे ‘पकडो, मारो’ आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौडती हैं। तब वानर भागने लगे॥3॥

जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

मूल

जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

भावार्थ

वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा॥4॥

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

मूल

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

भावार्थ

वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए॥5॥

हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

मूल

हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

भावार्थ

हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोडकर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥

प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

मूल

प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

भावार्थ

उसने बहुत से हनुमान्‌ प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौडे। उन्होन्ने चारों ओर दल बनाकर श्री रामचन्द्रजी को जा घेरा॥7॥

मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

मूल

मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

भावार्थ

वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, ‘मारो, पकडो, जाने न पावे’। उनके लङ्गूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्री रामजी हैं॥8॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही।
जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

मूल

तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही।
जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

भावार्थ

उनके बीच में कोसलराज का सुन्दर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इन्द्रधनुषों की श्रेष्ठ बाढ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से ‘जय, जय, जय’ ऐसा बोलने लगे। तब श्री रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली॥1॥

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाडे राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

मूल

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाडे राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

भावार्थ

माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पडे। श्री रामजी ने बाणों के समूह छोडे, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पडे। श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकडों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते॥2॥