099

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

मूल

काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

भावार्थ

सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अन्तर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेङ्गे॥99॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

मूल

अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचन्द्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यन्त विरह व्यथा उत्पन्न हुई॥1॥

निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

मूल

निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

भावार्थ

वे रात्रि की और चन्द्रमा की बहुत प्रकार से निन्दा कर रही हैं (और कह रही हैं-) रात युग के समान बडी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं॥2॥

जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

मूल

जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

भावार्थ

जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फडक उठे। शकुन समझकर उन्होन्ने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेङ्गे॥3॥

इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।
सठ रनभूमि छडाइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही॥4॥

मूल

इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।
सठ रनभूमि छडाइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही॥4॥

भावार्थ

यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मन्दबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!॥4॥

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढि पुनि धावा॥
सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

मूल

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढि पुनि धावा॥
सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

भावार्थ

सारथि ने चरण पकडकर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढकर फिर दौडा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बडी खलबली मच गई॥5॥

जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

मूल

जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

भावार्थ

वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाडकर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौडे॥6॥

03 छन्द

धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

मूल

धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

भावार्थ

विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौडे। वे अत्यन्त क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥