097

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढे पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥97॥

मूल

तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढे पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥97॥

भावार्थ

तब श्री रघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥97॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिर भुज बाढि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥

मूल

सिर भुज बाढि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥

भावार्थ

शत्रु के सिर और भुजाओं की बढती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौडे॥1॥

बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥2॥

मूल

बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥2॥

भावार्थ

बालिपुत्र अङ्गद, मारुति हनुमान्‌जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान्‌ उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकडकर वानरों को मारता है॥2॥

एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।
तब नल नील सिरन्हि चढि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥3॥

मूल

एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।
तब नल नील सिरन्हि चढि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥3॥

भावार्थ

कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाडकर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ गए और नखों से उसके ललाट को फाडने लगे॥3॥

रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥4॥

मूल

रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥4॥

भावार्थ

खून देखकर उसे हृदय में बडा दुःख हुआ। उसने उनको पकडने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों॥4॥

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥5॥

मूल

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥5॥

भावार्थ

तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोडकर भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया॥5॥

हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायउ रनधीरा॥6॥

मूल

हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायउ रनधीरा॥6॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और सन्ध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत्‌ दौडे॥6॥

सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥7॥

मूल

सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥7॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान्‌ रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड-पकडकर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा॥7॥

देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥8॥

मूल

देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥8॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी॥8॥

03 छन्द

उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥
निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

मूल

उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥
निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

भावार्थ

छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पडा। उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड रखा था। (ऐसा जान पडता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा॥