094

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

मूल

उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

मूल

देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

भावार्थ

विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौडे। उन्होन्ने उस पर्वत से रावण के रथ, घोडे और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी॥1॥

ठाढ रहा अति कम्पित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

मूल

ठाढ रहा अति कम्पित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

भावार्थ

रावण खडा रहा, पर उसका शरीर अत्यन्त काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए॥2॥

गहिसि पूँछ कपि सहित उडाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

मूल

गहिसि पूँछ कपि सहित उडाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

भावार्थ

रावण ने पूँछ पकड ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उडे। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लडते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे॥3॥

सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु सम्भार्‌यो॥4॥

मूल

सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु सम्भार्‌यो॥4॥

भावार्थ

दोनों बहुत से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

मूल

सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

भावार्थ

श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान्‌जी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लडते हैं, देवताओं ने दोनों की ‘जय-जय’ पुकारी। हनुमान्‌जी पर सङ्कट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौडे, किन्तु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।