01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँडी सक्ति प्रचण्ड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड॥93॥
मूल
पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँडी सक्ति प्रचण्ड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड॥93॥
भावार्थ
फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोडी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥93॥
02 चौपाई
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥
मूल
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥
भावार्थ
अत्यन्त भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरन्त ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥1॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥
मूल
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥
भावार्थ
शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौडे॥2॥
रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ सीस चढाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥
मूल
रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ सीस चढाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥
भावार्थ
(और बोले-) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढाए। इसी से एक-एक के बदले में करोडों पाए॥3॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥
मूल
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥
भावार्थ
उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्यो।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर्यो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥
मूल
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्यो।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर्यो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥
भावार्थ
बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पडा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर सम्भालकर क्रोध में भरा हुआ दौडा। दोनों अत्यन्त बलवान् योद्धा भिड गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासङ्ग के बराबर भी नहीं समझते।