01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥
मूल
जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥
भावार्थ
जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढता जाता है॥92॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढी। बिसरा मरन भई रिस गाढी॥
गर्जेउ मूढ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥
मूल
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढी। बिसरा मरन भई रिस गाढी॥
गर्जेउ मूढ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥
भावार्थ
सिरों की बाढ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बडा गहरा क्रोध हुआ। वह महान् अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौडा॥1॥
समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दण्ड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥
मूल
समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दण्ड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥
भावार्थ
रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया। एक दण्ड (घडी) तक रथ दिखलाई न पडा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो॥2॥
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥3॥
मूल
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥3॥
भावार्थ
जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होन्ने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया॥3॥
काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥
मूल
काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥
भावार्थ
काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौडते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। ‘लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?’॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीं॥
मूल
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीं॥
भावार्थ
‘राम कहाँ हैं?’ यह कहकर सिरों के समूह दौडे, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष सन्धान करके रघुकुलमणि श्री रामजी ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुण्डों की मालाएँ लेकर बहुत सी कालिकाएँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं। मानो सङ्ग्राम रूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों।