01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानेउ चाप श्रवन लगि छाँडे बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥
मूल
तानेउ चाप श्रवन लगि छाँडे बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥
भावार्थ
धनुष को कान तक तानकर श्री रामचन्द्रजी ने भयानक बाण छोडे। श्री रामजी के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों॥91॥
02 चौपाई
चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका॥1॥
मूल
चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका॥1॥
भावार्थ
बाण ऐसे चले मानो पङ्ख वाले सर्प उड रहे हों। उन्होन्ने पहले सारथी और घोडों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बडे जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था॥1॥
तुरत आन रथ चढि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँडेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥2॥
मूल
तुरत आन रथ चढि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँडेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥2॥
भावार्थ
तुरन्त दूसरे रथ पर चढकर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोडे। उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्त वाले मनुष्य के होते हैं॥2॥
तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँडे सायक॥3॥
मूल
तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँडे सायक॥3॥
भावार्थ
तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोडों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोडों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खीञ्चकर बाण छोडे॥3॥
रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥4॥
मूल
रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥4॥
भावार्थ
रावण के सिर रूपी कमल वन में विचरण करने वाले श्री रघुवीर के बाण रूपी भ्रमरों की पङ्क्ति चली। श्री रामचन्द्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले॥4॥
स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥5॥
मूल
स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥5॥
भावार्थ
रुधिर बहते हुए ही बलवान् रावण दौडा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण सन्धान किया। श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए॥5॥
काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥6॥
मूल
काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥6॥
भावार्थ
(सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरन्त फिर नए हो गए॥6॥
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥7॥
मूल
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥7॥
भावार्थ
प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योङ्कि कोसलपति श्री रामजी बडे कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असङ्ख्य केतु और राहु हों॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उडत इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीं॥
मूल
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उडत इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीं॥
भावार्थ
मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड रहे हों। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उडते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों।