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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥

मूल

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥

भावार्थ

श्री रामजी के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला-) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥90॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँडै सर॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥

मूल

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँडै सर॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥

भावार्थ

दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोडने लगा। अनेकों आकार के बाण दौडे और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए॥1॥

पावक सर छाँडेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाडिसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई॥2॥

मूल

पावक सर छाँडेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाडिसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई॥2॥

भावार्थ

श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोडा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोडी, (किन्तु) श्री रामचन्द्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया॥2॥

कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥3॥

मूल

कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥3॥

भावार्थ

वह करोडों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं। रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ!॥3॥

तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥4॥

मूल

तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥4॥

भावार्थ

तब उसने श्री रामजी के सारथी को सौ बाण मारे। वह श्री रामजी की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पडा। श्री रामजी ने कृपा करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यन्त क्रोध को प्राप्त हुए॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मन्दोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

मूल

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मन्दोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

भावार्थ

युद्ध में शत्रु के विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अत्यन्त प्रचण्ड शब्द (टङ्कार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यन्त भयभीत हो गए)। मन्दोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकडकर चिग्घाडने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे।