01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥
मूल
बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥
भावार्थ
फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गम्भीर वचन बोले- हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वन्द्व युद्ध देखो॥89॥
02 चौपाई
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा॥
तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥
मूल
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा॥
तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥
भावार्थ
ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौडा॥1॥
जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना॥2॥
मूल
जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना॥2॥
भावार्थ
(उसने कहा-) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत् जानता है, लोकपाल तक जिसके कैद खाने में पडे हैं॥2॥
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु॥3॥
मूल
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु॥3॥
भावार्थ
तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया। बडे-बडे राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुम्भकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा॥3॥
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥4॥
मूल
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥4॥
भावार्थ
अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पडे हो॥4॥
सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥5॥
मूल
सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥5॥
भावार्थ
रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्री रामजी ने हँसकर यह वचन कहा- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवाद न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ॥5॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥
मूल
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥
भावार्थ
व्यर्थ बकवाद करके अपने सुन्दर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥