088

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥

मूल

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥

भावार्थ

रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥88॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥

मूल

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥

भावार्थ

देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बडा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर क्या था) इन्द्र ने तुरन्त अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया॥1॥

तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढे कोसलपुर भूपा॥
चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥2॥

मूल

तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढे कोसलपुर भूपा॥
चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥2॥

भावार्थ

उस दिव्य अनुपम और तेज के पुञ्ज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचन्द्रजी हर्षित होकर चढे। उसमें चार चञ्चल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलने वाले (देवलोक के) घोडे जुते थे॥2॥

रथारूढ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥3॥

मूल

रथारूढ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी को रथ पर चढे देखकर वानर विशेष बल पाकर दौडे। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने माया फैलाई॥3॥

सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥4॥

मूल

सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥4॥

भावार्थ

एक श्री रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मणजी ने भी उस माया को सच मान लिया। वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मणजी सहित बहुत से रामों को देखा॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥

मूल

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥

भावार्थ

बहुत से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मणजी सहित वे मानो चित्र लिखे से जहाँ के तहाँ खडे देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान्‌ हरि (दुःखों के हरने वाले श्री रामजी) ने हँसकर धनुष पर बाण चढाकर, पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई।