01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥
मूल
बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥
भावार्थ
वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥87॥
02 चौपाई
मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला॥
काक कङ्क लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥
मूल
मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला॥
काक कङ्क लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥
भावार्थ
भूत, पिशाच और बेताल, बडे-बडे झोण्टों वाले महान् भयङ्कर झोटिङ्ग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उडते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं॥1॥
एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥
मूल
एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥
भावार्थ
एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खों! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पडे कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पडे हों॥2॥
खैचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥3॥
मूल
खैचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥3॥
भावार्थ
गीध आँतें खीञ्च रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड रहे हों)। बहुत से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढे चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौका क्रीडा) खेल रहे हों॥3॥
जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूति पिसाच बधू नभ नञ्चहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिं॥4॥
मूल
जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूति पिसाच बधू नभ नञ्चहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिं॥4॥
भावार्थ
योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपडियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं॥4॥
जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥
मूल
जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥
भावार्थ
गीदडों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोडों धड बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पडे जय-जय बोल रहे है॥5॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
मूल
बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
भावार्थ
मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड) बिना सिर के दौडते हैं। पक्षी खोपडियों में उलझ-उलझकर परस्पर लडे मरते हैं, उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुण्डों को मसले डालते हैं। श्री रामजी के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लडाई के मैदान में सो रहे हैं।