01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर कु्रद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥
मूल
जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर कु्रद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥
भावार्थ
यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजी के पास आ गए। तब रावण जीने की आश छोडकर क्रोधित होकर चला॥85॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उडाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥
मूल
चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उडाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥
भावार्थ
चलते समय अत्यन्त भयङ्कर अमङ्गल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड-उडकर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा- युद्ध का डङ्का बजाओ॥1॥
चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें। सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥2॥
मूल
चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें। सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥2॥
भावार्थ
निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत से हाथी, रथ, घुडसवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौडे, जैसे पतङ्गों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौडते हैं॥2॥
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥
मूल
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥
भावार्थ
इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥
03 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ बाँधें माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥4॥
मूल
देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ बाँधें माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥4॥
भावार्थ
देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर श्री रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूडे को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥4॥
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा॥5॥
मूल
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा॥5॥
भावार्थ
लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और सम्पूर्ण लोकों के नेत्रों को आनन्द देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेण्टा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥
04 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे॥
मूल
सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे॥
भावार्थ
प्रभु ने हाथ में शार्गं धनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुन्दर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौडी छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।