01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥
मूल
उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥
भावार्थ
वहाँ (लङ्का में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यन्त अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है॥84॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥
मूल
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥
भावार्थ
यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरन्त जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥
पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए॥2॥
मूल
पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए॥2॥
भावार्थ
हे नाथ! तुरन्त वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान् और अङ्गद आदि सब (प्रधान वीर) दौडे॥2॥
कौतुक कूदि चढे कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का॥
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥
मूल
कौतुक कूदि चढे कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का॥
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥
भावार्थ
वानर खेल से ही कूदकर लङ्का पर जा चढे और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ॥3॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।
अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥
मूल
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।
अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥
भावार्थ
(उन्होन्ने कहा-) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अङ्गद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था॥4॥
03 छन्द
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
मूल
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
भावार्थ
जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकडकर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकडकर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यन्त ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकडकर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा। (निराश होने लगा)।