01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥
मूल
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥
भावार्थ
यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्जी कठोर वचन बोलते हुए दौडे। हनुमान्जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यन्त भयङ्कर घूँसे का प्रहार किया॥83॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥
मूल
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥
भावार्थ
हनुमान्जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए सम्भलकर उठे। हनुमान्जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पडा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो॥1॥
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥2॥
मूल
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥2॥
भावार्थ
मूर्च्छा भङ्ग होने पर फिर वह जागा और हनुमान्जी के बडे भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान्जी ने कहा-) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥2॥
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता॥3॥
मूल
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता॥3॥
भावार्थ
ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमान्जी श्री रघुनाथजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। श्री रघुवीर ने (लक्ष्मणजी से) कहा- हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥
मूल
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥
भावार्थ
ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौडे और बडी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो।
रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥
मूल
आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो।
रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥
भावार्थ
फिर उन्होन्ने बडी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यन्त व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पडा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरन्त ही लङ्का को ले गया। प्रताप के समूह श्री रघुवीर के भाई लक्ष्मणजी ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।