082

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥

मूल

निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥

भावार्थ

अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर श्री रघुनाथजी के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥82॥

02 चौपाई

रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुडावउँ छाती॥1॥

मूल

रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुडावउँ छाती॥1॥

भावार्थ

(लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा-) अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूँढ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठण्डी करूँगा॥1॥

अस कहि छाडेसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥2॥

मूल

अस कहि छाडेसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोडे। लक्ष्मणजी ने सबके सैकडों टुकडे कर डाले। रावण ने करोडों अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मणजी ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया॥2॥

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥3॥

मूल

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥3॥

भावार्थ

फिर अपने बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोडकर सारथी को मार डाला। (रावण के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों॥3॥

पुनि सुत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाडिसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥4॥

मूल

पुनि सुत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाडिसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥4॥

भावार्थ

फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पडा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्माजी ने उसे दी थी॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही।
पर्‌यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥

मूल

सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही।
पर्‌यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥

भावार्थ

वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पडे। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, (व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्माण्ड रूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मणजी को नहीं जानता।