081

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥

मूल

निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥

भावार्थ

अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढकर गर्व करके ‘लौटो, लौटो’ कहता हुआ चला॥81॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

धायउ परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर॥
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥

मूल

धायउ परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर॥
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥

भावार्थ

रावण अत्यन्त क्रोधित होकर दौडा। वानर हुँकार करते हुए (लडने के लिए) उसके सामने चले। उन्होन्ने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड लेकर रावण पर एक ही साथ डाले॥1॥

लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥2॥

मूल

लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥2॥

भावार्थ

पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरन्त टुकडे-टुकडे होकर फूट जाते हैं। अत्यन्त क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खडा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला॥2॥

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना॥3॥

मूल

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना॥3॥

भावार्थ

उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू ‘हे अङ्गद! हे हनुमान्‌! रक्षा करो, रक्षा करो’ (पुकारते हुए) भाग चले॥3॥

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने॥4॥

मूल

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने॥4॥

भावार्थ

हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण सन्धान किए॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्धानि धनु सर निकर छाडेसि उरग जिमि उडि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे॥

मूल

सन्धानि धनु सर निकर छाडेसि उरग जिमि उडि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे॥

भावार्थ

उसने धनुष पर सन्धान करके बाणों के समूह छोडे। वे बाण सर्प की तरह उडकर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यन्त कोलाहल मच गया। वानर-भालुओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी- हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीडितों के बन्धु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरने वाले हरि!