01 दोहा
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ सुनहु सखा मतिधीर॥1॥
मूल
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ सुनहु सखा मतिधीर॥1॥
भावार्थ
हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥1॥
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज॥80 ख
मूल
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज॥80 ख
भावार्थ
प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्) उपदेश दिया॥2॥
उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥3॥
मूल
उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥3॥
भावार्थ
उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अङ्गद और हनुमान्। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड रहे हैं॥3॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढे बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहिं सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा॥1॥
मूल
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढे बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहिं सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा॥1॥
भावार्थ
ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढे हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और श्री रामजी के रण-रङ्ग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था॥1॥
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥2॥
मूल
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥2॥
भावार्थ
दोनों ओर के योद्धा रण रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को श्री रामजी का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिडते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं॥2॥
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥3॥
मूल
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥3॥
भावार्थ
वे मारते, काटते, पकडते और पछाड देते हैं और सिर तोडकर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं। पेट फाडते हैं, भुजाएँ उखाडते हैं और योद्धाओं को पैर पकडकर पृथ्वी पर पटक देते हैं॥3॥
निसिचर भट महि गाडहिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥4॥
मूल
निसिचर भट महि गाडहिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥4॥
भावार्थ
राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पडते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥1॥
मूल
क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥1॥
भावार्थ
क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान् वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से मारते, दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाडते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ॥1॥
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥2॥
मूल
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥2॥
भावार्थ
वे राक्षसों के गाल पकडकर फाड डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतडियाँ निकालकर गले में डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पडते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी श्री नृसिंह भगवान् अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीडा कर रहे हों। पकडो, मारो, काटो, पछाडो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं। श्री रामचन्द्रजी की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं)॥2॥