01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥
मूल
ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥
भावार्थ
जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शान्ति हो सकती है?॥78॥
02 चौपाई
चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥
मूल
चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥
भावार्थ
राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरङ्गिणी सेना की बहुत सी Uटुकडियाँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत से रङ्गों की अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥1॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥2॥
मूल
चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥2॥
भावार्थ
मतवाले हाथियों के बहुत से झुण्ड चले। मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों। रङ्ग-बिरङ्गे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बडे शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं॥2॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिन्धुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥
मूल
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिन्धुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥
भावार्थ
अत्यन्त विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसन्त ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे॥3॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥
मूल
उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥
भावार्थ
इतनी धूल उडी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाडे भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों॥4॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥5॥
मूल
भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥5॥
भावार्थ
भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं॥5॥
कहइ दसानन सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई॥6॥
मूल
कहइ दसानन सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई॥6॥
भावार्थ
रावण ने कहा- हे उत्तम योद्धाओं! सुनो तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई॥6॥
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥7॥
मूल
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥7॥
भावार्थ
जब सब वानरों ने यह खबर पाई, तब वे श्री राम की दुहाई देते हुए दौडे॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उडाहिं भूधर बृन्द नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥
मूल
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उडाहिं भूधर बृन्द नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥
भावार्थ
वे विशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौडे। मानो पङ्ख वाले पर्वतों के समूह उड रहे हों। वे अनेक वर्णों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बडे-बडे वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बडे बलवान् हैं और किसी का भी डर नहीं मानते। रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप श्री रामजी का जय-जयकार करके वे उनके सुन्दर यश का बखान करते हैं।