077

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब दसकण्ठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥

मूल

तब दसकण्ठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥

भावार्थ

तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत्‌ का यह (दृश्य)रूप नाशवान्‌ है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

मूल

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

भावार्थ

रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥

मूल

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥

भावार्थ

रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लडाई में शत्रु के सम्मुख मन डाँवाडोल हो,॥2॥

सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढि आवा॥3॥

मूल

सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढि आवा॥3॥

भावार्थ

अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैन्ने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढाया है। जो शत्रु चढ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा॥3॥

अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥

मूल

अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥

भावार्थ

ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लडाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान्‌ वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो॥4॥

असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥

मूल

असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥

भावार्थ

उस समय असङ्ख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बडा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है॥5॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

मूल

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

भावार्थ

अत्यन्त गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पडते हैं। घोडे, हाथी साथ छोडकर चिग्घाडते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यन्त भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों। (मृत्यु का सन्देसा सुना रहे हों)।