075

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त।
अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त॥75॥

मूल

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त।
अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त॥75॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरन्त चले। उनके साथ अङ्गद, नील, मयन्द, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥75॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥

मूल

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥

भावार्थ

वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे॥1॥

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥2॥

मूल

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥2॥

भावार्थ

इतने पर भी वह न उठा, (तब) उन्होन्ने जाकर उसके बाल पकडे और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौडा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मणजी खडे थे॥2॥

आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥3॥

मूल

आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥3॥

भावार्थ

वह अत्यन्त क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयङ्कर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान्‌) और अङ्गद क्रोध करके दौडे। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया॥3॥

प्रभु कहँ छाँडेसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥4॥

मूल

प्रभु कहँ छाँडेसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥4॥

भावार्थ

फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोडा। अनन्त (श्री लक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकडे कर दिए। हनुमान्‌जी और युवराज अङ्गद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी॥4॥

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि कुरद्ध जनु काला। लछिमन छाडे बिसिख कराला॥5॥

मूल

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि कुरद्ध जनु काला। लछिमन छाडे बिसिख कराला॥5॥

भावार्थ

शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड करके दौडा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोडे॥5॥

देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अन्तरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥6॥

मूल

देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अन्तरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥6॥

भावार्थ

वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरन्त अन्तर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था॥6॥

देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मन्त्र दृढावा। ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥7॥

मूल

देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मन्त्र दृढावा। ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥7॥

भावार्थ

शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत क्रोधित हुए। लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार दृढ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए।)॥7॥

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा॥
छाडा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥8॥

मूल

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा॥
छाडा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥8॥

भावार्थ

कोसलपति श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का सन्धान किया। बाण छोडते ही उसकी छाती के बीच में लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया॥8॥