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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ॥1॥

मूल

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ॥1॥

भावार्थ

पक्षीराज गरुडजी सब माया-सर्पों के समूहों को पकडकर खा गए। तब सब वानरों के झुण्ड माया से रहित होकर हर्षित हुए॥1॥

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ पर चढे पराइ॥2॥

मूल

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ पर चढे पराइ॥2॥

भावार्थ

पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौडे। निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ गए॥2॥

02 चौपाई

मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥

मूल

मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥

भावार्थ

मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बडी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरन्त श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया॥1॥

इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥2॥

मूल

इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥2॥

भावार्थ

यहाँ विभीषण ने सलाह विचारी (और श्री रामचन्द्रजी से कहा-) हे अतुलनीय बलवान्‌ उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है॥2॥

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना॥3॥

मूल

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अङ्गदादि बहुत से वानरों को बुलाया (और कहा-)॥3॥

लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥4॥

मूल

लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥4॥

भावार्थ

हे भाइयों! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! सङ्ग्राम में तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बडा दुःख है॥4॥

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥5॥

मूल

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥5॥

भावार्थ

हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत (इनके) साथ रहना॥5॥

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥6॥

मूल

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥6॥

भावार्थ

(इस प्रकार) जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढाकर) रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गम्भीर वाणी बोले-॥6॥

जौं तेहि आजु बन्धे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥

मूल

जौं तेहि आजु बन्धे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥

भावार्थ

यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकडों शङ्कर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा॥7॥