073

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बन्ध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥

मूल

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बन्ध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बन्धन में आ सकते हैं?॥73॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥

मूल

चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥

भावार्थ

हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शङ्का) छोडकर श्री रामजी का भजन ही करते हैं॥1॥

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवन्त कह खल रहु ठाढा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढा॥2॥

मूल

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवन्त कह खल रहु ठाढा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढा॥2॥

भावार्थ

मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान्‌ ने कहा- अरे दुष्ट! खडा रह। यह सुनकर उसे बडा क्रोध बढा॥2॥

बूढ जानि सठ छाँडेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो॥3॥

मूल

बूढ जानि सठ छाँडेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो॥3॥

भावार्थ

अरे मूर्ख! मैन्ने बूढा जानकर तुझको छोड दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान्‌ उसी त्रिशूल को हाथ से पकडकर दौडा॥3॥

मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥4॥

मूल

मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥4॥

भावार्थ

और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पडा। जाम्बवान्‌ ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकडकर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया॥4॥

बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥5॥

मूल

बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥5॥

भावार्थ

(किन्तु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान्‌ ने उसका पैर पकडकर उसे लङ्का पर फेङ्क दिया। इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड को भेजा। वे तुरन्त ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे॥5॥