01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघनाद मायामय रथ चढि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥
मूल
मेघनाद मायामय रथ चढि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥
भावार्थ
मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढकर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥72॥
02 चौपाई
सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥
मूल
सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥
भावार्थ
वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा॥1॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥2॥
मूल
दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥2॥
भावार्थ
आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झडी लगा दी हो। ‘पकडो, पकडो, मारो’ ये शब्द सुनाई पडते हैं। पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता॥2॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर॥3॥
मूल
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर॥3॥
भावार्थ
पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौडकर जाते हैं। पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिञ्जरे बना दिए (बाणों से छा दिया)॥3॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर॥
मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥4॥
मूल
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर॥
मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥4॥
भावार्थ
अब कहाँ जाएँ, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए। मानो पर्वत इन्द्र की कैद में पडे हों। मेघनाद ने मारुति हनुमान्, अङ्गद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया॥4॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा। सर छाँडइ होइ लागहिं नागा॥5॥
मूल
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा। सर छाँडइ होइ लागहिं नागा॥5॥
भावार्थ
फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह श्री रघुनाथजी से लडने लगा। वह जो बाण छोडता है, वे साँप होकर लगते हैं॥5॥
ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी॥
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना॥6॥
मूल
ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी॥
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना॥6॥
भावार्थ
जो स्वतन्त्र, अनन्त, एक (अखण्ड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्री रामजी (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बँध गए) श्री रामचन्द्रजी सदा स्वतन्त्र, एक, (अद्वितीय) भगवान् हैं। वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं॥6॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥7॥
मूल
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥7॥
भावार्थ
रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किन्तु उससे देवताओं को बडा भय हुआ॥7॥