071

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥

मूल

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! कुम्भकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्री रामजी ने अपना परमधाम दे दिया। अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं, जो उन श्री रामजी को नहीं भजते॥71॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिन के अन्त फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढा॥1॥

मूल

दिन के अन्त फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढा॥1॥

भावार्थ

दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पडीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बडी थकावट हुई, परन्तु श्री रामजी की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ जाती है॥1॥(घ)॥

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकन्धर करई। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरई॥2॥

मूल

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकन्धर करई। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरई॥2॥

भावार्थ

उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं, जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुम्भकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है॥2॥

रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥3॥

मूल

रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥3॥

भावार्थ

स्त्रियाँ उसके बडे भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया॥3॥

देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बडाई॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥4॥

मूल

देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बडाई॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥4॥

भावार्थ

(और कहा-) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। अभी बहुत बडाई क्या करूँ? हे तात! मैन्ने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था॥4॥

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इति कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥5॥

मूल

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इति कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥5॥

भावार्थ

इस प्रकार डीङ्ग मारते हुए सबेरा हो गया। लङ्का के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे। इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यन्त रणधीर राक्षस॥5॥

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥6॥

मूल

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥6॥

भावार्थ

→दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड रहे हैं। हे गरुड उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता॥6॥