069

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥

मूल

महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥

भावार्थ

और बडा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड-करोड वानरों को पकडकर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा॥69॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥

मूल

भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥

भावार्थ

यह देखकर रीछ-वानरों के झुण्ड ऐसे भागे जैसे भेडिये को देखकर भेडों के झुण्ड! (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले॥1॥

यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥2॥

मूल

यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥2॥

भावार्थ

(वे कहने लगे-) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुल रूपी देश में पडना चाहता है। हे कृपा रूपी जल के धारण करने वाले मेघ रूप श्री राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरने वाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए!॥2॥।

सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछें घाली। चले सकोप महा बलसाली॥3॥

मूल

सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछें घाली। चले सकोप महा बलसाली॥3॥

भावार्थ

करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान्‌ धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली श्री रामजी ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढे)॥3॥

खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥4॥

मूल

खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने धनुष को खीञ्चकर सौ बाण सन्धान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौडा। उसके दौडने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी॥4॥

लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥5॥

मूल

लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥5॥

भावार्थ

उसने एक पर्वत उखाड लिया। रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौडा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी॥5॥

काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥6॥

मूल

काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥6॥

भावार्थ

भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पङ्ख का मन्दराचल पहाड हो। उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो॥6॥