01 दोहा
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥
मूल
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥
भावार्थ
तब कमलनयन श्री रामजी बोले- हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को सम्भालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ॥67॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टङ्कोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥
मूल
कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टङ्कोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥
भावार्थ
हाथ में शार्गन्धनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो धनुष का टङ्कार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया॥1॥
सत्यसन्ध छाँडे सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥2॥
मूल
सत्यसन्ध छाँडे सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥2॥
भावार्थ
फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोडे। वे ऐसे चले मानो पङ्खवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत से बाण चले, जिनसे भयङ्कर राक्षस योद्धा कटने लगे॥2॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीं॥3॥
मूल
कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीं॥3॥
भावार्थ
उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकडे हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर सम्भलकर उठते और लडते हैं॥3॥
लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥4॥
मूल
लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥4॥
भावार्थ
बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं। बहुत से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं। बिना मुण्ड (सिर) के प्रचण्ड रुण्ड (धड) दौड रहे हैं और ‘पकडो, पकडो, मारो, मारो’ का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं॥4॥