066

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाडेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥

मूल

जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाडेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥

भावार्थ

‘रघुवंशमणि की जय हो, जय हो’ ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौडे और सबने एक ही साथ उस पर पहाड और वृक्षों के समूह छोडे॥66॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीडी गिरि गुहाँ समाई॥1॥

मूल

कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीडी गिरि गुहाँ समाई॥1॥

भावार्थ

रण के उत्साह में कुम्भकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड-करोड वानरों को एक साथ पकडकर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों॥1॥

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥2॥

मूल

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥2॥

भावार्थ

करोडों (वानरों) को पकडकर उसने शरीर से मसल डाला। करोडों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया। (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं॥2॥

रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥3॥

मूल

रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥3॥

भावार्थ

रण के मद में मत्त राक्षस कुम्भकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो और उसे वह ग्रास कर जाएगा। सब योद्धा भाग खडे हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पडता और पुकारने से सुनते नहीं!॥3॥

कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥4॥

मूल

कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥4॥

भावार्थ

कुम्भकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौडी। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है॥4॥