065

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥

मूल

अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥

भावार्थ

सुग्रीव समेत अङ्गदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुम्भकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला॥65॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥

मूल

उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लडाई शोभा देती है?॥1॥

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥2॥

मूल

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥2॥

भावार्थ

भगवान्‌ (इसके द्वारा) जगत्‌ को पवित्र करने वाली वह कीर्ति फैलाएँगे, जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएँगे। मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान्‌जी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे॥2॥

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥3॥

मूल

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥3॥

भावार्थ

सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पडे)। कुम्भकर्ण ने उनको मृतक जाना। उन्होन्ने कुम्भकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुम्भकर्ण ने जाना॥3॥

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥4॥

मूल

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥4॥

भावार्थ

उसने सुग्रीव का पैर पकडकर उनको पृथ्वी पर पछाड दिया। फिर सुग्रीव ने बडी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान्‌ सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले- कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो॥4॥

नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥5॥

मूल

नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥5॥

भावार्थ

नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बडी ग्लानि हुई और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयङ्कर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया॥5॥