01 दोहा
सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान।
जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥
मूल
सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान।
जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥
भावार्थ
तब रावण के वचन सुनकर कुम्भकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥62॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥
मूल
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥
भावार्थ
हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोडकर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥
मूल
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥
भावार्थ
हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2॥
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥
मूल
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥
भावार्थ
हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥3॥
अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥
मूल
अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥
भावार्थ
हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुडाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4॥