01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥
मूल
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥
भावार्थ
भरतजी ने वानर (हनुमान्जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनन्द तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥
मूल
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥
भावार्थ
(भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्जी) ने सङ्क्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥
मूल
अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥
भावार्थ
हा दैव! मैं जगत् में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्जी से बोले-॥2॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥
मूल
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥
भावार्थ
हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥
मूल
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥
भावार्थ
भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचन्द्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर बोले-॥4॥