01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढि जान॥57॥
मूल
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढि जान॥57॥
भावार्थ
तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान्जी का पैर पकड लिया। हनुमान्जी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढकर आकाश को चली॥57॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥
मूल
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥
भावार्थ
(उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो॥1॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहिं मन्त्र तुम्ह देहू॥2॥
मूल
अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहिं मन्त्र तुम्ह देहू॥2॥
भावार्थ
ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान्जी निशाचर के पास गए। हनुमान्जी ने कहा- हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मन्त्र दीजिएगा॥2॥
सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाडेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥3॥
मूल
सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाडेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥3॥
भावार्थ
हनुमान्जी ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोडे। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान्जी मन में हर्षित होकर चले॥3॥
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥4॥
मूल
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥4॥
भावार्थ
उन्होन्ने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड लिया। पर्वत लेकर हनुमान्जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए॥4॥