053

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिर गाड भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उडाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥

मूल

रुधिर गाड भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उडाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥

भावार्थ

खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उडकर पड रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अङ्गारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥53॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥

मूल

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥

भावार्थ

घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यन्त क्रोध करके एक-दूसरे से भिडते हैं॥1॥

एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवन्त तब भयउ अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता॥2॥

मूल

एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवन्त तब भयउ अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता॥2॥

भावार्थ

एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान्‌ अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होन्ने तुरन्त उसके रथ को तोड डाला और सारथी को टुकडे-टुकडे कर दिया!॥2॥

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥

मूल

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥

भावार्थ

शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण सङ्कट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेङ्गे॥3॥

बीरघातिनी छाडिसि साँगी। तेजपुञ्ज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥

मूल

बीरघातिनी छाडिसि साँगी। तेजपुञ्ज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥

भावार्थ

तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोडकर उनके पास चला गया॥4॥