052

01 दोहा

आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥

मूल

आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥

भावार्थ

श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अङ्गद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥52॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥

मूल

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥

भावार्थ

उनके लाल नेत्र हैं, चौडी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बडे-बडे योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौडे॥1॥

भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥

मूल

भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥

भावार्थ

पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर ‘श्री रामचन्द्रजी की जय’ पुकारकर दौडे। वानर और राक्षस सब जोडी से जोडी भिड गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात्‌ प्रबल थी)॥2॥

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥

मूल

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥

भावार्थ

वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। ‘मारो, मारो, पकडो, पकडो, पकडकर मार दो, सिर तोड दो और भुजाऐँ पकडकर उखाड लो’॥3॥

असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा॥4॥

मूल

असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा॥4॥

भावार्थ

नवों खण्डों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड) जहाँ-तहाँ दौड रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनन्द॥4॥