051

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु प्रबल माया बस सिव बिरञ्चि बड छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥

मूल

जासु प्रबल माया बस सिव बिरञ्चि बड छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥

भावार्थ

शिवजी और ब्रह्माजी तक बडे-छोटे (सभी) जिनकी अत्यन्त बलवान्‌ माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥51॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नभ चढि बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥

मूल

नभ चढि बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥

भावार्थ

आकाश में (ऊँचे) चढकर वह बहुत से अङ्गारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर ‘मारो, काटो’ की आवाज करने लगीं॥1॥

बिष्टा पूय रुधिर कच हाडा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाडा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥

मूल

बिष्टा पूय रुधिर कच हाडा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाडा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥

भावार्थ

वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेङ्क देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥2॥

कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥

मूल

कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥

भावार्थ

माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए। उन्होन्ने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं॥3॥

एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥

मूल

एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥

भावार्थ

तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अन्धकार के समूह को हर लेता है। तदनन्तर उन्होन्ने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे॥4॥