045

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त॥45॥

मूल

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त॥45॥

भावार्थ

भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अन्त होता देखकर हनुमान्‌ और अङ्गद दोनों कूद पडे और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान्‌ श्री रामजी थे॥45॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥

मूल

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥

गए जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥

मूल

गए जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥

भावार्थ

अङ्गद और हनुमान्‌ को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पडे। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥

निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥

मूल

निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥

भावार्थ

राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पडे और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड गए। दोनों ही दल बडे बलवान्‌ हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर लडते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥

महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥

मूल

महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥

भावार्थ

सभी राक्षस महान्‌ वीर और अत्यन्त काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रङ्गों के हैं। दोनों ही दल बलवान्‌ हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लडते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥

प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥

मूल

प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥

भावार्थ

(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पडते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड रहे हों। अकम्पन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥

भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥

मूल

भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥

भावार्थ

पलभर में अत्यन्त अन्धकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥