01 दोहा
एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड॥44॥
मूल
एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड॥44॥
भावार्थ
एक को दूसरे से (रगडकर) मसल डालते हैं और सिरों को तोडकर फेङ्कते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूण्डे फूट रहे हों॥4॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥
मूल
महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥
भावार्थ
जिन बडे-बडे मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड पाते हैं, उनके पैर पकडकर उन्हें प्रभु के पास फेङ्क देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥
मूल
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥
भावार्थ
ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बडे ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥
देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी॥3॥
मूल
देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी॥3॥
भावार्थ
ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यन्त मन्दबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥
अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिन्धु दुइ मन्दर जैसें॥4॥
मूल
अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिन्धु दुइ मन्दर जैसें॥4॥
भावार्थ
श्री रामजी ने कहा कि अङ्गद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लङ्का में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥ दोहा :