01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥
मूल
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥
भावार्थ
अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोडों बलवान् और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ गए॥40॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥
मूल
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥
भावार्थ
वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डङ्के आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लडने का) चाव होता है॥1॥
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥
मूल
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥
भावार्थ
अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड जाती हैं। उन्होन्ने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान् योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे॥2॥
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥
मूल
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥
भावार्थ
(देखा कि) वे रीछ-वानर दौडते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकडकर पहाडों को फोडकर रास्ता बना लेते हैं। करोडों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं॥3॥
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥
मूल
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥
भावार्थ
उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। ‘जय’ ‘जय’ ‘जय’ की ध्वनि होते ही लडाई छिड गई। राक्षस पहाडों के ढेर के ढेर शिखरों को फेङ्कते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं॥4॥
03 छन्द
धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड मर्कट भालु गढ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ चढि चढि गए।
कपि भालु चढि मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥
मूल
धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड मर्कट भालु गढ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ चढि चढि गए।
कपि भालु चढि मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥
भावार्थ
प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकडे ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकडकर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चञ्चल और बडे तेजस्वी वानर-भालू बडी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ-चढकर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का यश गाने लगे।