01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥
मूल
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥
भावार्थ
महान् बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से ‘श्री रामजी की जय’, ‘लक्ष्मणजी की जय’, ‘वानरराज सुग्रीव की जय’- ऐसी गर्जना करने लगे॥39॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
लङ्काँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥
मूल
लङ्काँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥
भावार्थ
लङ्का में बडा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यन्त अहङ्कारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई॥1॥
आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥
मूल
आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥
भावार्थ
बन्दर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बडे जोर से ठहाका मारकर हँसा)॥2॥
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥3॥
मूल
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥3॥
भावार्थ
(और बोला-) हे वीरों! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड-पकडकर खाओ। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)॥3॥
चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचण्डा। सूल कृपान परिघ गिरिखण्डा॥4॥
मूल
चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचण्डा। सूल कृपान परिघ गिरिखण्डा॥4॥
भावार्थ
आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिन्दिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दोधारी तलवार, परिघ और पहाडों के टुकडे लेकर राक्षस चले॥4॥
जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥5॥
मूल
जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥5॥
भावार्थ
जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पडते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोञ्च टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौडे॥5॥