01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥
मूल
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥
भावार्थ
आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥
मूल
नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥
भावार्थ
स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यन्त अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1॥
इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥
मूल
इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥
भावार्थ
यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अङ्गद को बुलाया। उन्होन्ने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बडे आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले॥2॥
बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥
मूल
बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥
भावार्थ
हे बालि के पुत्र! मुझे बडा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्भर में धाक है,॥3॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥
मूल
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥
भावार्थ
उसके चार मुकुट तुमने फेङ्के। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अङ्गद ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं॥4॥
साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
मूल
साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
भावार्थ
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुन्दर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥