036

01 दोहा

बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबन्ध।
बालि एक सर मार्‌यो तेहि जानहु दसकन्ध॥36॥

मूल

बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबन्ध।
बालि एक सर मार्‌यो तेहि जानहु दसकन्ध॥36॥

भावार्थ

जिन्होन्ने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होन्ने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए!॥36॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥

मूल

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥

भावार्थ

जिन्होन्ने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पडे, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढाने वाले) करुणामय भगवान्‌ ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥

सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥

मूल

सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥

भावार्थ

जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुण्ड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यन्त विकट वीर अङ्गद और हनुमान्‌ जिनके सेवक हैं,॥2॥

तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥

मूल

तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥

भावार्थ

हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3॥

काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥

मूल

काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥

भावार्थ

काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4॥