01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥1॥
मूल
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥1॥
भावार्थ
करोडों वीर योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे, वे बार-बार झपटते हैं, पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥1॥
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग॥2॥
मूल
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग॥2॥
भावार्थ
जैसे करोडों विघ्न आने पर भी सन्त का मन नीति को नहीं छोडता, वैसे ही वानर (अङ्गद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोडता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥2॥
02 चौपाई
कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥
मूल
कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥
भावार्थ
अङ्गद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अङ्गद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अङ्गद का चरण पकडने लगा, तब बालि कुमार अङ्गद ने कहा- मेरा चरण पकडने से तेरा बचाव नहीं होगा!॥1॥
गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥
मूल
गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥
भावार्थ
अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकडता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चन्द्रमा दिखाई देता है॥2॥
सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥3॥
मूल
सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥3॥
भावार्थ
वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्री रामचन्द्रजी जगत्भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहने वाला शान्ति कैसे पा सकता है?॥3॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥
मूल
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिन श्री रामचन्द्रजी के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है, जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यन्त निर्बल को महान् प्रबल और महान् प्रबल को अत्यन्त निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है?॥4॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥
मूल
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥
भावार्थ
फिर अङ्गद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योङ्कि उसका काल निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अङ्गद ने उसको प्रभु श्री रामचन्द्रजी का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल दिया-॥5॥
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बडाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥
मूल
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बडाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥
भावार्थ
रणभूमि में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बडाई करूँ। अङ्गद ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया॥6॥
जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥
मूल
जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥
भावार्थ
अङ्गद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यन्त ही व्याकुल हो गए॥7॥