01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड॥1॥
मूल
सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड॥1॥
भावार्थ
रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड! बीस आँखें होने पर भी तू अन्धा है। तेरे जन्म को धिक्कार है॥1॥
तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥2॥
मूल
तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी के बाण समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जाएँगे) इस डर से, अरे कडवी बकवाद करने वाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोडता हूँ॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥
मूल
मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥
भावार्थ
मैं तेरे दाँत तोडने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड डालूँ और (तेरी) लङ्का को पकडकर समुद्र में डुबो दूँ॥1॥
गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का॥
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥2॥
मूल
गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का॥
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥2॥
भावार्थ
तेरी लङ्का गूलर के फल के समान है। तुम सब कीडे उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो। मैं बन्दर हूँ, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्री रामचन्द्रजी ने वैसी आज्ञा नहीं दी॥2॥
जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥3॥
मूल
जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥3॥
भावार्थ
अङ्गद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कुराया (और बोला-) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से सीखा? बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पडता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है॥3॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥4॥
मूल
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥4॥
भावार्थ
(अङ्गद ने कहा-) अरे बीस भुजा वाले! यदि तेरी दसों जीभें मैन्ने नहीं उखाड लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। श्री रामचन्द्रजी के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अङ्गद क्रोधित हो उठे और उन्होन्ने रावण की सभा में प्रण करके (दृढता के साथ) पैर रोप दिया॥4॥
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥5॥
मूल
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥5॥
भावार्थ
(और कहा-) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री रामजी लौट जाएँगे, मैं सीताजी को हार गया। रावण ने कहा- हे सब वीरो! सुनो, पैर पकडकर बन्दर को पृथ्वी पर पछाड दो॥5॥
इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥6॥
मूल
इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥6॥
भावार्थ
इन्द्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान् योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं॥6॥
पुनि उठि झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥7॥
मूल
पुनि उठि झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥7॥
भावार्थ
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं, परन्तु हे सर्पों के शत्रु गरुडजी! अङ्गद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोह रूपी वृक्ष को नहीं उखाड सकते॥7॥