031

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥1॥

मूल

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥1॥

भावार्थ

उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥1॥

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ समुझु तजि टेक॥2॥

मूल

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ समुझु तजि टेक॥2॥

भावार्थ

जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ! जिद्द छोडकर समझ (विचार कर)॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब तेहिं कीन्हि राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयउ कपिन्दा॥
हरि हर निन्दा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥

मूल

जब तेहिं कीन्हि राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयउ कपिन्दा॥
हरि हर निन्दा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥

भावार्थ

जब उसने श्री रामजी की निन्दा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अङ्गद अत्यन्त क्रोधित हुए, क्योङ्कि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान्‌ विष्णु और शिव की निन्दा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है॥1॥

कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥2॥

मूल

कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥2॥

भावार्थ

वानर श्रेष्ठ अङ्गद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होन्ने तमककर (जोर से) अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद् गिर पडे और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥2॥

गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे॥3॥

मूल

गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे॥3॥

भावार्थ

रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वी पर गिर पडे। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अङ्गद ने उठाकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी के पास फेङ्क दिए॥3॥

आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥4॥

मूल

आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥4॥

भावार्थ

मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बडे धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं?॥4॥

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥5॥

मूल

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥5॥

भावार्थ

प्रभु ने (उनसे) हँसकर कहा- मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अङ्गद के फेङ्के हुए आ रहे हैं॥5॥