01 दोहा
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥30॥
मूल
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥30॥
भावार्थ
तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊँ॥30॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं अस करौं तदपि न बडाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढा। अति दरिद्र अजसी अति बूढा॥1॥
मूल
जौं अस करौं तदपि न बडाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढा। अति दरिद्र अजसी अति बूढा॥1॥
भावार्थ
यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बडाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कञ्जूस, अत्यन्त मूढ, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढा,॥1॥
सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति सन्त बिरोधी॥
तनु पोषक निन्दक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
मूल
सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति सन्त बिरोधी॥
तनु पोषक निन्दक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
भावार्थ
नित्य का रोगी, निरन्तर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान् विष्णु से विमुख, वेद और सन्तों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निन्दा करने वाला और पाप की खान (महान् पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥
अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥3॥
मूल
अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥3॥
भावार्थ
अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अङ्गद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला-॥3॥
रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बडि कहसी॥
कटु जल्पसि जड कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥4॥
मूल
रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बडि कहसी॥
कटु जल्पसि जड कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥4॥
भावार्थ
अरे नीच बन्दर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बडी बात कहता है। अरे मूर्ख बन्दर! तू जिसके बल पर कडुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है॥4॥