029

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द॥29॥

मूल

जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द॥29॥

भावार्थ

अरे मन्द बुद्धि! समझकर देख। पतङ्गे मोहवश आग में जल मरते हैं, गदहों के झुण्ड बोझ लादकर चलते हैं, पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥29॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब जनि बतबढाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥

मूल

अब जनि बतबढाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥

भावार्थ

अरे दुष्ट! अब बतबढाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श्री रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है-॥1॥

बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बन्धे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥2॥

मूल

बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बन्धे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥2॥

भावार्थ

कृपालु श्री रामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभु के (उन) वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैन्ने तेरे कठोर वचन सहे हैं॥2॥

नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥3॥

मूल

नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥3॥

भावार्थ

नहीं तो तेरे मुँह तोडकर मैं सीताजी को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैन्ने तभी जान लिया, जब तू सूने में पराई स्त्री को हर (चुरा) लाया॥3॥

तै निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करउँ॥4॥

मूल

तै निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करउँ॥4॥

भावार्थ

तू राक्षसों का राजा और बडा अभिमानी है, परन्तु मैं तो श्री रघुनाथजी के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक का भी सेवक) हूँ। यदि मैं श्री रामजी के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि-॥4॥