028

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥28॥

मूल

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥28॥

भावार्थ

रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यन्त हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं॥28॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥1॥

मूल

जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥1॥

भावार्थ

मस्तकों के जलते समय जब मैन्ने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा॥1॥

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥2॥

मूल

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥2॥

भावार्थ

उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योङ्कि मैं समझता हूँ कि) बूढे ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोडकर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है!॥2॥

कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवन्त तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥3॥

मूल

कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवन्त तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥3॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- अरे रावण! तेरे समान लज्जावान्‌ जगत्‌ में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँह से अपने गुण कभी नहीं कहता॥3॥

सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥4॥

मूल

सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥4॥

भावार्थ

सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तूने हृदय में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था॥4॥

सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इन्द्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा॥5॥

मूल

सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इन्द्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा॥5॥

भावार्थ

अरे मन्द बुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इन्द्रजाल रचने वाले को वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है!॥5॥