01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥25॥
मूल
तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥25॥
भावार्थ
उस (महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बडाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बन्दर! अब मैन्ने तेरा ज्ञान जान लिया॥25॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सम्भारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥
मूल
सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सम्भारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥
भावार्थ
रावण के ये वचन सुनकर अङ्गद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! सँभलकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था,॥1॥
जासु परसु सागर खर धारा। बूडे नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥2॥
मूल
जासु परसु सागर खर धारा। बूडे नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥2॥
भावार्थ
जिनके फरसा रूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुरामजी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं?॥2॥
राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥
मूल
राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥
भावार्थ
क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचन्द्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गङ्गाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥3॥
बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा॥4॥
मूल
बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा॥4॥
भावार्थ
गरुडजी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिन्तामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्री रघुनाथजी की अखण्ड भक्ति क्या (और लाभों जैसा ही) लाभ है?॥4॥