023

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥1॥

मूल

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥1॥

भावार्थ

क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥2॥

मूल

सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥2॥

भावार्थ

हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लडने में शोभा पाए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥3॥

मूल

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥3॥

भावार्थ

प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेण्ढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड दोष।
तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥4॥

मूल

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड दोष।
तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥4॥

भावार्थ

यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बडा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बडा कठिन होता है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सडसिन्ह मनहुँ काढत भट दससीस॥5॥

मूल

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सडसिन्ह मनहुँ काढत भट दससीस॥5॥

भावार्थ

वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अङ्गद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी सँडसियों से निकाल रहा है॥5॥

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥6॥

मूल

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥6॥

भावार्थ

तब रावण हँसकर बोला- बन्दर में यह एक बडा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥6॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥

मूल

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥

भावार्थ

बन्दर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोडकर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसके धर्म की निपुणता है॥1॥

अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥2॥

मूल

अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥2॥

भावार्थ

हे अङ्गद! तेरी जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुण ग्राहक (गुणों का आदर करने वाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता॥2॥

कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥

मूल

कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3॥

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥

मूल

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥

भावार्थ

तुम्हारा वही सुन्दर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैन्ने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैन्ने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ है॥4॥

जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥

मूल

जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥

भावार्थ

(रावण बोला-) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अङ्गद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरन्त कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई!॥5॥

बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥

मूल

बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥

भावार्थ

अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत्‌ में कितने रावण हैं? मैन्ने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥6॥

बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोडाई॥7॥

मूल

बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोडाई॥7॥

भावार्थ

एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुडसाल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होन्ने उसे छुडा दिया॥7॥

एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोडावा॥8॥

मूल

एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोडावा॥8॥

भावार्थ

फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौडकर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुडाया॥8॥