01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेङ्गे तोहि॥20॥
मूल
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेङ्गे तोहि॥20॥
भावार्थ
और ‘हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।’ (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देङ्गे॥20॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥
मूल
रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥
भावार्थ
(रावण ने कहा-) अरे बन्दर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेण्टा॥
अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥2॥
मूल
अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेण्टा॥
अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥2॥
भावार्थ
(अङ्गद ने कहा-) मेरा नाम अङ्गद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेण्ट हुई थी? अङ्गद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला-) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नाम का एक बन्दर था॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥3॥
मूल
अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥3॥
भावार्थ
अरे अङ्गद! तू ही बालि का लडका है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया!॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अङ्गद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥4॥
मूल
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अङ्गद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥4॥
भावार्थ
अब बालि की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अङ्गद ने हँसकर कहा- दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही) बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥
मूल
राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥
भावार्थ
श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेङ्गे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5॥